पहले सदमात के दरिया में उतारा ख़ुद को और फिर बढ़ के दिया मैं ने सहारा ख़ुद को बन-सँवर कर वो चला जाता है लेकिन घंटों आइना देखता रहता है बेचारा ख़ुद को डूबने वालों को बढ़ कर ये बचाता क्यों नहीं इतना बेबस क्यों समझता है किनारा ख़ुद को वो मिरी ज़ात का हिस्सा है छुपा है मुझ में मैं ने ये सोच के हर बार पुकारा ख़ुद को मुझ से मिल कर तिरी सूरत निखर आई कितनी ग़ौर से देखा नहीं तू ने दोबारा ख़ुद को कितने असरार खुले मेह्र-ओ-वफ़ा के मुझ पर आतिश-ए-इश्क़ से जब मैं ने गुज़ारा ख़ुद को अपने जल्वों से कभी उस ने निखारा है मुझे ले के अंगड़ाई कभी उस ने सँवारा ख़ुद को आदी उस ने जो बनाया है मुझे अपना 'फहीम' मैं बग़ैर उस के नहीं करता गवारा ख़ुद को