पहलू में दिल है दर्द-ए-मोहब्बत लिए हुए बैठा हूँ काएनात की दौलत लिए हुए इस हुस्न-ए-इश्वा-गर से फ़रिश्ते न बच सके है आदमी तो फिर बशरिय्यत लिए हुए अल्लाह रे ग़ुबार गुज़रगाह-ए-यार का है ज़र्रा ज़र्रा तूर की अज़्मत लिए हुए होगी क़ुबूल दावर-ए-महशर ये पेश-कश आया हूँ मैं मताअ'-ए-नदामत लिए हुए हों बारयाब-ए-बज़्म वो साअ'त कब आएगी मुद्दत गुज़र चुकी है इजाज़त लिए हुए हालाँकि मुस्कुराते हैं वो वक़्त-ए-गुफ़्तुगू लहजा मगर है साफ़ कुदूरत लिए हुए मर कर भी गुल-रुख़ों से जुदाई न हो सकी फूलों का ढेर है मिरी तुर्बत लिए हुए गुमनाम था तो कुंज-ए-क़नाअत नसीब था फिरती है चार-सू मिरी शोहरत लिए हुए हर गोशा मेरे क़ल्ब का मैदान-ए-हश्र है है मुख़्तसर मकान ये वुसअत लिए हुए नाले निकल के दिल से अगर अर्श तक गए जाएँगे ऐ फ़लक ये तिरी छत लिए हुए इक हूर-वश के कूचे का 'साबिर' है दिल पे नक़्श बैठा हूँ मैं कनार में जन्नत लिए हुए