उतरे तिलिस्म शब के उजालों पे रात-भर क़ुर्बां हुई है सुब्ह चराग़ों पे रात-भर ज़ुल्मत में अपनी डूब गईं दिन की बस्तियाँ सूरज तमाम चमके सितारों पे रात-भर उतरे नहीं शबों में उड़ानों के हौसले बैठे रहे परिंद भी शाख़ों पे रात-भर इक लौ नहीं नसीब ग़रीबान-ए-शहर को शमएँ जली हैं कितनी मज़ारों पे रात-भर ढलती रही निगाह में चेहरों की चाँदनी नाज़िल हुए यक़ीन गुमानों पे रात-भर पैराहन-ए-जमाल है रख़्त-ए-बरहनगी पहने गए हैं जिस्म लिबासों पे रात-भर ख़ुशबू में जज़्ब हो गईं महताबियाँ 'समद' शबनम हुई निसार गुलाबों पे रात-भर