पहलू में इक नई सी ख़लिश पा रहा हूँ मैं इस वक़्त ग़ालिबन उन्हें याद आ रहा हूँ मैं क्या चश्म-ए-इल्तिफ़ात का मतलब समझ गया क्यूँ तर्क-ए-आरज़ू की क़सम खा रहा हूँ मैं क्या कुछ न थी शिकायत-ए-कोताही-ए-नज़र अब वुसअ'त-ए-निगाह से घबरा रहा हूँ मैं तू ये समझ रहा है कि मजबूर-ए-इश्क़ हूँ कुछ सोच कर फ़रेब-ए-वफ़ा खा रहा हूँ मैं