पहलू-ए-ग़ैर में दुख-दर्द समोने न दिया दामन-ए-वस्ल में इक हिज्र ने रोने न दिया रंज ये है कि मिरा दर्द से महका हुआ तीर उस वफ़ा-सोज़ ने पहलू में खुबूने न दिया इश्क़ वो शोला-ए-सफ़्फ़ाक है जिस ने मुझ पर आग जारी रखी और राख भी होने न दिया तुझ को ता-हिज्र रहा था मिरी वहशत से गुरेज़ इसी वहशत ने तिरी याद को खोने न दिया शर्म आती है बहुत ऐसी सुबुक-दोशी पर इश्क़ का बोझ भी इस ज़ीस्त ने ढोने न दिया