पैक-ए-ख़याल भी है अजब क्या जहाँ-नुमा आया नज़र वो पास जो अपने से दूर था उस माह-रू पे आँख किसी की न पड़ सकी जल्वा था तूर का कि सरासर वो नूर था देते न दिल जो तुम को तो क्यूँ बनती जान पर कुछ आप की ख़ता न थी अपना क़ुसूर था ज़र्रे की तरह ख़ाक में पामाल हो गए वो जिन का आसमाँ पे सर-ए-पुर-ग़ुरूर था