पलट के आँख के पर्दों पे सर झुकाते हों हम ऐसे ख़्वाब नहीं हैं जो आते जाते हों गुज़रती रात के पैरों में काँच के तारे अजब नहीं जो किसी आँख में समाते हों बदन को चीरती बारिश हो और ऐसे में हम अपने रंग लिए ख़ाक-दाँ सजाते हों ज़मीं को ग़ौर से देखूँ तो ख़ौफ़ आता है कि जैसे लोग यहाँ आसमाँ बनाते हों