पलट के जानिब-अहल-ओ-अयाल देखता हूँ कभी जब अपने लहू में उबाल देखता हूँ हनूज़ कुछ भी बदलता नज़र नहीं आता हुजूम देखता हूँ इश्तिआल देखता हूँ शिकस्त-ओ-रेख़्त से मुझ को गुज़ारता है वही इसी के चेहरे पे गर्द-ए-मलाल देखता हूँ सब एक धुँद लिए फिर रहे हैं आँखों में किसी के चेहरे पे माज़ी न हाल देखता हूँ लगा हुआ हूँ उसी रंग को उभारने में अभी ग़ज़ल में जिसे ख़ाल ख़ाल देखता हूँ तमाम सूरत-ए-हालात इंक़िलाबी है फ़लक शिकस्ता ज़मीं पाएमाल देखता हूँ मुझे समेट के रखता है कितनी देर 'तलब' किसी के हुस्न-ए-नज़र का कमाल देखता हूँ