परिंदे बे-क़रारी में मुसलसल बर्फ़-बारी में हमीं क्यूँ ज़द में आते हैं हमेशा चाँद-मारी में हमारी क़ौम ज़िंदा है फ़क़त मरदुम-शुमारी में बहुत नुक़सान होता है ज़ियादा होशियारी में कमी कुछ रह गई है क्या हमारी जाँ-निसारी में क़लम फ़य्याज़ होता था 'तलब' बे-रोज़-गारी में