पामाल-ए-आरज़ू दिल-ए-नाकाम ही तो है ख़ुश हूँ कि ये भी इश्क़ का अंजाम ही तो है गो ज़िंदगी की शाम सही शाम ही तो है एक इब्तिदा-ए-सुब्ह ख़ुश-अंजाम ही तो है इंसानियत का ख़ून नहीं शैख़-ए-मोहतरम मेरे सुबू में बादा-ए-गुलफ़ाम ही तो है तुम तो ग़म-ए-हयात से बचते हो इस तरह जैसे ये कोई ज़हर-भरा जाम ही तो है मेरे लबों पे शिकवा-ए-तक़दीर तो नहीं ज़िक्र-ए-मआल-ए-गर्दिश-ए-अय्याम ही तो है मैं जब से मुब्तला-ए-ग़म-ए-रोज़गार हूँ तकलीफ़ तो नहीं मुझे आराम ही तो है जिस आरज़ू-ए-शौक़ से छूटे न जाँ कभी वो आरज़ू-ए-शौक़ कहाँ दाम ही तो है इस नाम से कि शाइ'र-ए-शीरीं-मक़ाल है तेरा 'अतीक़' शहर में बदनाम ही तो है