पर्दा हाइल जो था कहाँ है अब तेरा जल्वा ही दरमियाँ है अब शम्अ कहती रही जिसे शब भर ख़ात्मे पर वो दास्ताँ है अब मेरी नज़रों की इक थकन के सिवा और क्या चीज़ आसमाँ है अब सब्र का मेरे इम्तिहाँ तो हुआ तेरी रहमत का इम्तिहाँ है अब तू भी मेरी तरह न हो नाकाम फ़िक्र ये रब-ए-दो-जहाँ है अब कामयाबी के गुर बताने लगी इश्क़ पर अक़्ल मेहरबाँ है अब 'मज़हरी' पेश-ए-कारवाँ था कभी 'मज़हरी' गर्द-ए-कारवाँ है अब