पर्दा उठा के चश्म-ए-तग़ाफ़ुल-निगर से आप दिल का जमाल देखिए दिल की नज़र से आप ग़ाफ़िल हैं हुस्न-ओ-इश्क़ ख़ुद अपने असर से आप कुछ बे-ख़बर से हम भी हैं कुछ बे-ख़बर से आप नज़रें चुरा रहे हैं जो अहल-ए-नज़र से आप आईने को छुपाते हैं आईना-गर से आप सहमी हुई दुआएँ हैं नाले डरे हुए मायूस यूँ कोई न हो अपने असर से आप गरमा रही है क़ल्ब को इक बर्क़-ए-बे-ख़ुदी जल्वे हमें दिखाते हैं आख़िर किधर से आप हर हर क़दम पे सज्दों के मिलते हैं कुछ निशाँ शायद कि आज गुज़रे हैं इस रहगुज़र से आप हर ज़र्रा-ए-नज़र है गुलिस्ताँ बना हुआ आई बहार गुज़रे हैं या रहगुज़र से आप ख़ुद्दारियों का पास भी ऐ शान-ए-मुन्फ़इल मरऊब हों न चश्म-ए-मोहब्बत-असर से आप दुश्वार हैं रसाइयाँ दामा-ए-दोस्त तक क़तरात-ए-अश्क खुलते नहीं चश्म-ए-तर से आप दीवार-ए-ला-मकाँ हो कि पर्दे हिजाब के छुपते नहीं हैं चश्म-ए-हक़ीक़त-निगर से आप जल्वे भी ख़ुद निगाह के पर्दे में ऐ 'मुनीर' देखा उन्हें तो छुप गए अपनी नज़र से आप