पर्दे मिरी निगाह के भी दरमियाँ न थे क्या कहिए उन के जल्वे कहाँ थे कहाँ न थे जिस रास्ते से ले गई थी मुझ को बे-ख़ुदी उस राह में किसी के क़दम के निशाँ न थे राज़-आश्ना है मेरी नज़र या फिर आइना वर्ना वो अपने हुस्न के ख़ुद राज़-दाँ न थे कुछ बे-सदा से लफ़्ज़ नज़र कह गई ज़रूर माना लब-ए-ख़मोश रहीन-ए-बयाँ न थे आए तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबाँ भूले तो यूँ कि जैसे कभी मेहरबाँ न थे 'अशरफ़' फ़रेब-ए-ज़ीस्त है कब इम्तिहाँ से कम इस के सिवा तो और यहाँ इम्तिहाँ न थे