परिंदा एक उड़ा था जो कल हवाओं में वो खो गया है ख़ुदा जाने किन फ़ज़ाओं में झुलस के रह गई क्यों फ़स्ल आरज़ुओं की भरी हुई है ये क्या आग सी घटाओं में दुखों के ख़ार उगाए हैं तुम ने फूलों में मिलेंगे ज़ख़्म भी अब रेशमी रिदाओं में फ़लक से उन का जवाब आए भी तो क्या आए बहुत सुकून मिला आ के हम को गाँव में ग़म-ए-जहाँ ही का परतव नहीं मिरे अशआ'र है कर्ब-ए-रूह भी शामिल मिरी नवाओं में मिरा है ज़िक्र जहाँ में तिरे हवाले से कभी तो आ के मुझे मिल वफ़ा की छाँव में किताब-ए-दिल में थे महफ़ूज़ जो 'ज़हीर' कभी बिखर गए हैं फ़साने वो अब फ़ज़ाओं में