पारसा तू पारसाई पर न कर इतना ग़ुरूर मैं अगर बंदा हूँ आसी पर मिरा मौला ग़फ़ूर मा-सिवा दीदार ख़्वाहिश है मुझे किस चीज़ की तू पड़ा फिरता है जन्नत ढूँढता हूर-ओ-क़ुसूर मैं अगरचे रिंद हूँ तो आप को मैं आप को ज़ोहद से तेरे मुझे मतलब न कुछ कार-ए-ज़रूर तेरे तईं ग़र्रा है अपनी पारसाई ज़ोहद का मेरे तईं अल्लाह के फ़ज़्ल-ओ-करम से है सुरूर रिंद के मशरब पर ऐ ज़ाहिद तबस्सुम मत करे भेद उस का कुछ न पावेगा तू है मा'नी से दूर ज़ख़्म-ए-तेग़-ए-अबरू सह जावे न तुझ से बुल-हवस एक शम्अ से हुआ था जिस के सुर्मा कोह-ए-तूर चूतड़ ऊपर सर झुकाना उस को तू समझा है फ़ख़्र है नहीं क़ाबिल तू फज़्लुल्लाह का ऐ बे-शुऊर क्या तुझे मालूम है दैर-ओ-हरम की एक राह बुत-परस्ती उस जगह और इस जगह है यक उमूर दम ग़नीमत है तो हर दम याद में ले दम के तईं ज़िक्र दाइम 'आफ़रीदी' हो चराग़-अंदर-क़ुबूर