मैं ख़ुशामद के साएबान में था एक ना-आश्ना अमान में था वो हवाओं के जाल बुनता रहा और मैं भी किसी उड़ान में था लफ़्ज़-ओ-मा'नी में क्यों उलझते हो ये तो सोचो वो किस के ध्यान में था तुझ से बछड़ा मगर यक़ीं न किया ये अगरचे मिरे गुमान में था ख़ौफ़-ए-दीवार-ओ-दर में पलता रहा मैं वो बे-घर था जो मकान में था हम-नशीं ग़म-ज़दा हुए 'मंज़र' सोज़ ऐसा तिरे बयान में था