पास जिस के न था कुछ रख़्त-ए-सफ़र मैं ही था रात के दश्त में बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर मैं ही था दूर तक दायरा-दर-दायरा ग़र्क़ाब हुआ सीना-ए-शब में सियाही का भँवर मैं ही था बार से आज हर इक शाख़ झुकी जाती है या चमन में कभी बे-बर्ग-ओ-समर मैं ही था मेरे अतराफ़ सदाओं का घना जंगल था तेज़ आँधी में बिखरने को मगर मैं ही था जाने वो कौन था मैं ढूँड रहा था जिस को जो मिरे सामने आया था अगर मैं ही था