पसंद ना-पसंद का कोई भी ज़ाबता नहीं कभी भला भी है बुरा कभी बुरा बुरा नहीं तो जैसे धूप में चमकता बर्फ़-पोश कोहसार मैं काली रात का दिया तू मेरे हुस्न सा नहीं वो हँसता बस्ता शख़्स था दिलों पे सब के नक़्श था फिर एक दिन कहीं गया कहाँ गया पता नहीं ये क्या हसीन बाग़ है यहाँ हैं कितनी तितलियाँ वो एक क्यों नहीं यहाँ नहीं यहाँ मज़ा नहीं तमाम रात जाग कर कटी है उस के वास्ते मिरी सहर नहीं हुई वो मेहर तो दिखा नहीं ये क्या अजीब इश्क़ है जो फ़ोन पर ही हो गया क़राबतों का शौक़ ही दिलों में अब रहा नहीं ये बज़्म-ए-शब सजा रहे हैं रंग रंग क़ुमक़ुमे मगर ये कैसी बज़्म है कि इक भी दिल जला नहीं सुना है मेरे बारे में छपी हैं आज सुर्ख़ियाँ ये राएगाँ छपी हैं उन लबों ने गर पढ़ा नहीं