पस-ए-दीवार भी दीवार उठाए हुए हैं मेरे साथी मिरे लाशे को छुपाए हुए हैं किस से पूछूँ कि मिरे नाम की तख़्ती है कहाँ मेरे सीने में तो वीराने समाए हुए हैं उन से कह दो जो मकीं हैं मिरे घर में कि मुझे लोग फिर बेचने बाज़ार में लाए हुए हैं ज़ुल्मतें उन का इजारा हैं चलो यूँ ही सही हम भी लौ दिल के चराग़ों की बढ़ाए हुए हैं आसमाँ पर न सितारे न ज़मीं पर जुगनू कौन फिर माथों पे किरनें सी सजाए हुए हैं हम तो पतझड़ की सदा हैं हमें देखो न सुनो हम को सोचो कि बहारों को सजाए हुए हैं रेत पर मैं भी घरौंदा लिए बैठा हूँ 'मतीन' वो भी हर क़तरा-ए-बारिश में समाए हुए हैं