पाता हूँ लाल तैश में जान-ए-हया को मैं कैसे ज़बाँ पे लाऊँ अभी मुद्द'आ को मैं मुश्किल घड़ी है ले लें 'अक़ाएद का इम्तिहाँ तुम हाथ-पाँव मारो पुकारूँ ख़ुदा को मैं इक बार की ख़ता हो तो लग़्ज़िश भी मान लूँ हर बार हो तो क्या कहूँ ऐसी ख़ता को मैं करता रहा फिर आज की शब भी उसी तरह जुगनू का इंतिज़ार बुझा कर दिया को मैं ऐसा कभी गुनाह न कर बैठूँ ऐ ख़ुदा मुँह भी दिखा सकूँ न फिर अहल-ए-वफ़ा को मैं जो राख भी कुरेद के शो'ले निकाल ले पहचानता हूँ 'नज़्र' इक ऐसी हवा को मैं