पता कैसे चले दुनिया को क़स्र-ए-दिल के जलने का धुएँ को रास्ता मिलता नहीं बाहर निकलने का बता फूलों की मसनद से उतर के तुझ पे क्या गुज़री मिरा क्या मैं तो आदी हो गया काँटों पे चलने का मिरे घर से ज़ियादा दूर सहरा भी नहीं लेकिन उदासी नाम ही लेती नहीं बाहर निकलने का चढ़ेगा ज़हर ख़ुश्बू का उसे आहिस्ता आहिस्ता कभी भुगतेगा वो ख़म्याज़ा फूलों को मसलने का मुसलसल जागने के बाद ख़्वाहिश रूठ जाती है चलन सीखा है बच्चे की तरह उस ने मचलने का ज़र-ए-दिल ले के पहुँचा था मता-ए-जाँ भी खो बैठा दिया उस ने न मौक़ा भी कफ़-ए-अफ़्सोस मिलने का ख़ुशी से कौन करता है ग़मों की परवरिश 'साजिद' किसे है शौक़ लोगो दर्द के साँचे में ढलने का