पाते हैं मुद्दआ' को ग़म-ए-मुद्दआ से हम सरशार हैं तमन्नी-ए-बे-इल्तिजा से हम अब जिस पे चाहें रख दें वो इल्ज़ाम-ए-मय-कशी है मस्त हम से उन की अदा और अदा से हम बेगानगी ने तेरी दिया होश-ए-ग़ैरती साबित हुए हैं किस सितम-ए-ना-रवा से हम बैठे रहे वो ख़ून-ए-तमन्ना किए हुए देखा किए उन्हें निगह-ए-इल्तिजा से हम तेरा शबाब है ग़म-ए-उल्फ़त की इब्तिदा या'नी हुए शुरूअ तिरी इंतिहा से हम अब किस से जा के उन की शिकायत बयाँ करें उन से भी पहले रूठ चुके हैं ख़ुदा से हम आज़ाद है अलाएक-ए-रस्म-ओ-रिवाज से 'मैकश' को जानते हैं बहुत इब्तिदा से हम