पत्थर से मुकालिमा है जारी दोनों ही तरफ़ है होशियारी वहशत से मैं भागता रहा हूँ फिर मुझ पे जुनूँ हुआ है तारी दरवेश को रख के ख़ाक-ए-पा में करता है ज़माना शहरयारी पत्थर से मुझे न चोट पहुँची इक गुल ने दिया है ज़ख़्म कारी शहरी वतन-ए-अज़ीज़ का हूँ लेकिन है शिआ'र अश्क-बारी मज़हब है मिरा तरीक़-ए-हिन्दी देरीना बुतों से अपनी यारी पाया है फ़रोग़-ए-सेकुलरिज़्म तलवार हुई है अब दो धारी गुज़रे हुए दिन का इस्तिआ'रा ये मौलवी और ये भिकारी