पत्थरों से दोस्ताना क्या हुआ आज तक है आइना टूटा हुआ देर से सूरज जो है डूबा हुआ है अंधेरा हर तरफ़ छाया हुआ ऊँची ऊँची चिमनियों में आज भी देखता हूँ मैं लहू जलता हुआ तेरी परवाज़ें बहुत महदूद हैं आसमाँ है दूर तक फैला हुआ क्यों दयार-ए-फ़िक्र में है तीरगी क्या ग़ज़ल का 'मीर' है सोया हुआ उस को अपनी आन ठुकराना पड़ी मैं बड़ी मुश्किल से दीवाना हुआ आँधियों की ज़द में वो भी आ गया जो दिया था ताक़ पर जलता हुआ