पयम्बर मैं नहीं आशिक़ हूँ जानी रहे मूसी ही से ये लन-तरानी सुलैमाँ हम हैं ऐ महबूब-ए-जानी समझते हैं तुझे बिल्क़ीस-ए-सानी खुला सौदे में उन ज़ुल्फ़ों के मर कर परेशाँ ख़्वाब थी ये ज़िंदगानी ये क्यूँ आता है उन से क़द-कुशी को गड़ी जाती है सर्व-ए-बोस्तानी वही देगा कबाब-ए-नर्गिसी भी जो देता है शराब-ए-अर्ग़वानी रंगा है इश्क़ ने किस दर्द-ए-सर से हमारा जामा-ए-तन ज़ाफ़रानी मुसाफ़िर की तरह रह ख़ाना-बर-दोश नहीं जाए-ए-इक़ामत दार-ए-फ़ानी तिरे कूचे के मुश्ताक़ों के आगे जहन्नम है बहिश्त-ए-आसमानी वो मय-कश हूँ दिया है क़ाबला ने जिसे ग़ुस्ल-ए-शराब-ए-अर्ग़वानी यक़ीं है दीदा-ए-बारीक-बीं को करे ऐनक तलब ये ना-तवानी वो ख़त है यादगार-ए-हुस्न-ए-रफ़्ता वो सब्ज़ा है गुलिस्ताँ की निशानी निकलती मुँह से क़ासिद के नहीं बात मगर लाया है पैग़ाम-ए-ज़बानी ये मुश्त-ए-ख़ाक हो मक़्बूल-ए-दरगाह सबा की चाहता हूँ मेहरबानी लिए हैं बोसा-ए-रुख़्सार-ए-साफ़ पिया है हम ने आईने का पानी सफ़ेदी मू की हो काफ़ूर हर-चंद कोई मिटता है ये दाग़-ए-जवानी न ख़ुश हो फ़रबही-ए-तन से ग़ाफ़िल सुबुक करती है मुर्दे को गिरानी मुए जो पेशतर मरने से वो लोग कफ़न समझे क़बा-ए-ज़िंदगानी जलाती है दिल 'आतिश' तूर की तरह किसी पर्दा-नशीं की लन-तरानी