पेश-ए-मंज़र जो तमाशे थे पस-ए-मंज़र भी थे हम ही थे माल-ए-ग़नीमत हम ही ग़ारत-गर भी थे आस्तीनों में छुपा कर साँप भी लाए थे लोग शहर की इस भीड़ में कुछ लोग बाज़ीगर भी थे बर्फ़-मंज़र धूल के बादल हवा के क़हक़हे जो कभी दहलीज़ के बाहर थे वो अंदर भी थे आख़िर-ए-शब दर्द की टूटी हुई बैसाखियाँ आड़े-तिरछे ज़ाविए मौसम के चेहरे पर भी थे रात हम ने जुगनुओं की सब दुकानें बेच दीं सुब्ह को नीलाम करने के लिए कुछ घर भी थे कुछ बिला-उनवान रिश्ते अजनबी सरगोशियाँ रतजगों के जश्न में ज़ख़्मों के सौदागर भी थे शब-परस्तों के नगर में बुत-परस्ती ही न थी वहशतें थीं संग-ए-मरमर भी था कारीगर भी थे इस ख़राबे में नए मौसम की साज़िश थी तो 'रिंद' लज़्ज़त-ए-एहसास के लम्हों के जलते पर भी थे