फैले हुए हैं साए दर-ओ-बाम पर अभी

फैले हुए हैं साए दर-ओ-बाम पर अभी
उभरी नहीं है अज़्मत-ए-नूर-ए-सहर अभी

क्यों जज़्बा-ए-तलब को नहीं शौक़-ए-जुस्तुजू
जलते तो हैं चराग़ सर-ए-रहगुज़र अभी

ख़ुद ही जो बढ़ के थाम लें दामन हयात का
इतने कहाँ हैं अहल-ए-जुनूँ मो'तबर अभी

ऐ रहरवान-ए-राह-ए-तमन्ना बढ़े चलो
पहुँचे नहीं हो मंज़िल-ए-मक़्सूद पर अभी

कितने बुझे बुझे से हैं शो'ले हयात के
कितने उदास उदास हैं शाम-ओ-सहर अभी

कितना बदल गया है शुऊ'र-ए-मज़ाक़-ए-ग़म
कितने फ़रेब देते हैं अहल-ए-नज़र अभी

है काएनात-ए-अज़्मत-ए-शद्दाद जल्वा-गर
इंसानियत सिसकती है हर गाम पर अभी

हैं दामन-ए-ख़िज़ाँ में बहारों की अज़्मतें
ना-आश्ना सुकूँ से हैं अहल-ए-हुनर अभी

'ख़ुर्शीद' जिस से ज़ुल्मत-ए-शब फ़ैज़याब हो
आँखों से दूर है वो ज़िया-ए-सहर अभी


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