हम ने चाहा था जिन्हें शौक़ से अरमानों से वो बहारें नहीं वाबस्ता गुलिस्तानों से अज़्मत-ए-फ़ितरत-ए-इदराक बदल जाती है काम बिगड़े हुए बन जाते हैं दीवानों से क़हक़हे दर्द की तम्हीद भी हो सकते हैं बिजलियाँ भी कभी टकराती हैं काशानों से मौत उन के लिए पैग़ाम-ए-बक़ा होती है खेल जाते हैं जो बे-साख़्ता तूफ़ानों से किस क़दर पस्त हुआ फ़ितरत-ए-आदम का वक़ार आज इंसान लरज़ उठता है इंसानों से और बढ़ जाता है अंदाज़-ए-जुनूँ का आलम जब भी दीवाने उलझते हैं गरेबानों से मय-कशी नाम है पीने का निगाहों से मुदाम हम ने पीना नहीं सीखा कभी पैमानों से किस क़दर फ़ितरत-ए-बेबाक की ख़ू बदली है अज़्म-ए-महमूद लरज़ता है सनम-ख़ानों से हम रहे दहर में आज़ुर्दा-ए-साहिल 'ख़ुर्शीद' नाख़ुदा से कभी उलझे कभी तूफ़ानों से