फिर देखते ऐश आदमी का बनता जो फ़लक मिरी ख़ुशी का गुलशन में तिरे लबों ने गोया रस चूस लिया कली कली का तेरा भी तो हुस्न है दग़ाबाज़ होता ही नहीं कोई किसी का इतनी ही तो बस कसर है तुम में कहना नहीं मानते किसी का हम बज़्म में उन की चुपके बैठे मुँह देखते हैं हर आदमी का तुम कूचा-ए-ग़ैर में न जाना उस राह में है गुज़र किसी का किस किस ने लिए हैं तेरे बोसे है ला'ल-ए-नमक-फ़िशाँ जो फीका जो दम है वो है बसा ग़नीमत सारा सौदा है जीते जी का आग़ाज़ को कौन पूछता है अंजाम अच्छा हो आदमी का रोकें उन्हें क्या कि है ग़नीमत आना-जाना कभी कभी का कहते हैं उसे ज़बान-ए-उर्दू जिस में न हो रंग फ़ारसी का ऐसे से जो 'दाग़' ने निबाही सच है कि ये काम था उसी का