फिरी है क्यों निगह-ए-दिलरुबा नहीं मालूम है इस अदा में भी किस की क़ज़ा नहीं मालूम गुलों से किस लिए बिगड़ी सबा नहीं मालूम चली ये बाग़ में कैसी हवा नहीं मालूम तुम्हीं पे अपनी हयात-ओ-ममात का है मदार हमें तो और कुछ इस के सिवा नहीं मालूम तलब वो करते हैं आईना ख़ैर हो या-रब बला ये लाएगा क्या दूसरा नहीं मालूम तुम्हारी ज़ुल्फ़ें हैं बे-तरह रात से बल पर करेंगी किस को असीर-ए-बला नहीं मालूम जलाए हस्ती-ए-आशिक़ को ये वो शो'ला है कुछ उन को शोख़ी-ए-रंग-ए-हिना नहीं मालूम हमारे सामने यकसाँ है रुत्बा-ए-रुख़-ओ-ज़ुल्फ़ हमें तफ़ावुत-ए-सुब्ह-ओ-मसा नहीं मालूम सवाल बोसा तक उन से किया न हम ने कभी वो किस ख़ता पे हैं हम से ख़फ़ा नहीं मालूम बना मज़ार भी अपना तो तेरे कूचे में मिरी वफ़ा तुझे क्या बे-वफ़ा नहीं मालूम जो राह पूछो तो कहते हैं रह-रवान-ए-अदम बताएँ क्या हमें ख़ुद रास्ता नहीं मालूम हमारा हाल भी हैरत-फ़ज़ा है ऐ हमदम कि अश्क जारी हैं और माजरा नहीं मालूम ख़ुशी ये है कि वो कहते हैं क़त्ल कर के मुझे सज़ा तो दी है वले कुछ ख़ता नहीं मालूम मरीज़-ए-हिज्र से ज़िद है मिरे मसीहा को वगर्ना क्या उसे इस की दवा नहीं मालूम मुमानअ'त है जो 'तालिब' को बुत-परस्ती की बिना-ए-काबा तुझे शैख़ क्या नहीं मालूम