फूल महके चमनिस्ताँ में जो ख़ंदाँ हो कर हम भी सहरा को चले चाक-ए-गरेबाँ हो कर ये भी है शूमी-ए-तक़दीर कि रह जाते हैं उन की महफ़िल में मिरे क़त्ल के सामाँ हो कर शम-ए-हसरत में जलाओ न हमें बहर-ए-ख़ुदा आते हैं बज़्म में इक रात के मेहमाँ हो कर गड़ गया और नदामत से पस-ए-मर्ग जो वो आ के बैठे मिरी बालीं पे पशेमाँ हो कर हम तो गेसू को तिरे सौंप चले हैं दम-ए-नज़अ देखें अब रहती है किस की शब-ए-हिज्राँ हो कर मेरे नालों की जो आवाज़ पहुँच जाती है घर से बाहर निकल आते हैं परेशाँ हो कर पहले जो हालत-ए-वहशत पे हँसा करते थे रो रहे हैं वही अब चाक-गरेबाँ हो कर दिल तो वो ले गए पहली ही नज़र में 'सय्याफ़' क्या मुदारात करें बे-सर-ओ-सामाँ हो कर