पोशाक न तू पहनियो ऐ सर्व-ए-रवाँ सुर्ख़ हो जाए न परतव से तिरे कौन-ओ-मकाँ सुर्ख़ याँ बादा-ए-अहमर के छलकते हैं जो साग़र ऐ पीर-ए-मुग़ाँ देख कि है सारी दुकाँ सुर्ख़ पी बादा-ए-अहमर तो ये कहने लगा गुल-रू मैं सुर्ख़ हूँ तुम सुर्ख़ ज़मीं सुर्ख़ ज़माँ सुर्ख़ क्या पान की सुर्ख़ी ने किया क़त्ल किसी को शिद्दत से है क्यूँ आज तिरी तेग़-ए-ज़बाँ सुर्ख़ सीने में दिल-ए-ग़म-ज़दा ख़ूँ हो गया शायद बे-वज्ह भी होते हैं कहीं अश्क-ए-रवाँ सुर्ख़ क्या भड़के है सीने में मिरे आतिश-ए-फ़ुर्क़त जो आह के हम-राह निकलता है धुआँ सुर्ख़ ये क़त्ल-ए-ख़िज़ाँ पर हैं जवानान-ए-चमन शाद हर सम्त गुल-ओ-लाला उड़ाते हैं निशाँ सुर्ख़ गर मेरी शहादत की बशारत नहीं 'परवीं' फिर क्यूँ है ख़त-ए-शौक़ के उनवाँ ये निशाँ सुर्ख़