पोशाक-ए-मोहब्बत थी फटी हम ने वो सी दी एहसास की नगरी में खिला रंग-ए-शहीदी किस जब्र का नर्ग़ा है मदीने की रियासत ख़ामोश है क्यों क्या है कोई अहद-ए-यज़ीदी हम गिर्या के फूलों से गिरा डालेंगे इक दिन दीवार के पीछे भी है दीवार-ए-हदीदी तुम अपने तसव्वुर से बनाते हो जो मिसरे ये हम ने दिए तुम को ख़यालात जदीदी ये अपना तयक़्क़ुन था कि मिल जाएगी 'मंज़र' सय्यद थे सो भूले से भी दुनिया न ख़रीदी