जब तबीअ'त सुकूँ से घबराई ले चला ज़ौक़-ए-आबला-पाई वो हुए माइल-ए-मसीहाई मौत फिर ज़िंदगी से शर्माई ज़ुल्फ़ बिखरी कि बस घटा छाई अहल-ए-तक़्वा पे इक बला आई ताइर-ए-आरज़ू ने पर तोले सेहन-ए-दिल में चली है पुर्वाई मुड़ के तूफ़ाँ को बारहा देखा नज़्द-ए-साहिल जो मौज ले आई कश्मकश वो जुनून-ओ-होश में है बन गया हुस्न भी तमाशाई रूह-ओ-तन में अज़ल से निस्बत है फिर भी हैं तिश्ना-ए-शनासाई शैख़ को ख़ुल्द-ओ-हूर का सौदा हाए ये लज़्ज़तों की गीराई मय-कदा का ये मो'जिज़ा है अजीब कुफ़्र-ओ-दीं में भी है शनासाई शग़्ल-ए-मय फ़र्त-ए-ग़म में क्या करते इस में थी दुख़्त-ए-रज़ की रुस्वाई दिन को मस्जिद तो शब को मय-ख़ाना तुझ सा 'फ़रहत' है कौन हरजाई