पूजने वाले सभी लोग हैं फ़रज़ाने को पूछता कौन है इस शहर में दीवाने को गुफ़्तुगू कूचा-ओ-बाज़ार की ले आते हैं जाने क्या लोग समझते हैं ख़ुदा-ख़ाने को मैं बनाया गया ईसार-ओ-वफ़ा की ख़ातिर तेरी तख़्लीक़ हुई ज़ुल्म-ओ-सितम ढाने को हम से ज़ी-फ़हम उन आँखों की पिया करते हैं ना-समझ लोग चले जाते हैं मयख़ाने को तुम से बिगड़ी हुई तक़दीर हमारी न बनी हम तो गुलज़ार बना देते हैं वीराने को अपनी ख़ातिर कोई सौग़ात न माँगी उस ने ख़त में लिक्खा है मुझे लौट के आ जाने को उस ने 'अंजुम' लब-ओ-रुख़्सार की रानाई से दे दिया रंग-ए-हक़ीक़त मिरे अफ़्साने को