पुराने सब नज़ारे जा रहे हैं नए मंज़र उभारे जा रहे हैं उधर है सर्द-मेहरी और इधर से इशारों पर इशारे जा रहे हैं सफ़ीना हो रहा है ग़र्क़-ए-तूफ़ाँ निगाहों से किनारे जा रहे हैं नहीं बातिन पे अब कोई तवज्जोह फ़क़त ज़ाहिर सँवारे जा रहे हैं शब-ए-ग़म में रुख़-ए-रौशन के जल्वे अँधेरों को निखारे जा रहे हैं कहीं बिखरी पड़ी है ज़ुल्फ़ 'अफ़ज़ल' कहीं गेसू सँवारे जा रहे हैं