पुरानी याद की तमाम किर्चियाँ लिए हुए उदास शाम आ गई पहेलियाँ लिए हुए टपक पड़ा लहू उछलती मछलियों को देख कर कभी मिले थे तुम भी कज-कुलाहियाँ लिए हुए अभी तो मौत से हैं दूर ज़िंदगी की प्यास है कभी चलेंगे उस तरफ़ रवानियाँ लिए हुए ठहर ज़रा मिरे रक़ीब दोस्त साथ साथ चल हम उस की ओर जा रहे हैं कश्तियाँ लिए हुए सदाएँ आ रहीं दयार-ए-ग़म का बाब भी खुला मिलेगी रात आशिक़ों की सिसकियाँ लिए हुए धुआँ धुआँ फ़ज़ा सभी सितारे गुम हुए कहीं किसी ने खोल दी है ज़ुल्फ़ सर्दियाँ लिए हुए मैं खो रहा हूँ ख़ुद को हर तलाश ख़त्म हो रही मिरी ग़ज़ल मिली मुझे तसल्लियाँ लिए हुए नहीं नहीं अभी दिलों की बस्तियाँ उजाड़ दो कि चल रही ये नस्ल-ए-नौ बुराइयाँ लिए हुए कोई मिरा भी हो सके ये चाहता नहीं ख़ुदा अता हुई हैं रौनक़ें उदासियाँ लिए हुए वो आख़िरी सहर हमें अज़ीज़ थी कभी बहुत जहाँ बिछड़ गए थे तुम शिताबियाँ लिए हुए सफ़ेद रंग ज़िंदगी का दाग़ दाग़ हो गया तड़प रहा तमाम शब सियाहियाँ लिए हुए