हज़ारों दर्द यकजा हो के आँखें धो रहे हैं ये रुत गिर्या की है हर सम्त आँसू हो रहे हैं हवा-ए-ख़्वाब-ए-ख़ुश ने थी हमारी नींद तोड़ी सो इक गहरी उदासी ओढ़ ली है सो रहे हैं हमें रखने थे अपने नक़्श-ए-पा भी सुर्ख़ियों में सो अपनी राह में कुछ और काँटे बो रहे हैं बड़ी ख़्वाहिश थी हम को क़ैस होने की सो हो गए न जाने कब से सर पर एक सहरा ढो रहे हैं कहानी भी तुम्हारी और अहम किरदार भी तुम हमारा ज़िक्र क्या हम जो रहे हैं सो रहे हैं अचानक ख़ामुशी से भर गए हैं सब वगर्ना ज़माने तक हमारे ज़ख़्म क़िस्सा-गो रहे हैं अजब सी बद-हवासी है हमें कोई बताए हमें क्या ढूँढना है और हम क्या खो रहे हैं ज़रा संभलों तुम्हारी वहशतों के ज़िक्र 'सलमान' जहाँ होने नहीं थे अब वहाँ भी हो रहे हैं