प्यास ही प्यास का मुक़द्दर है दश्त के ख़्वाब में समुंदर है या मिरे अज़्म में कमी है कुछ या यक़ीं ख़ुद गुमान-परवर है साहिब-ए-इख़्तियार हूँ लेकिन दायरा दाएरे के अंदर है शुक्र है ज़ीस्त की मसाफ़त में मेरा इक इक क़दम ज़मीं पर है ख़्वाब ही ज़िंदगी का महवर था ख़्वाब ही ज़िंदगी का महवर है संग-ज़ादों को शीशागर लिक्खूँ ये मिरी दस्तरस से बाहर है आज भी है लबों पे ख़ामोशी 'राज़' लेकिन ब-रंग-ए-दीगर है