प्यास ने जाम की क़ीमत को बढ़ा रक्खा है वर्ना क्या जाम में तल्ख़ी के सिवा रक्खा है हम को आ कर न डरा सैल-ए-हवा से ऐ दोस्त हम ने दीपक को नहीं दिल को जला रक्खा है जिस का जो हक़ है वो बख़्शा है बराबर हम ने आँख में अक्स तिरा दिल में ख़ुदा रक्खा है माँ के पैवंद लगे कपड़ों से दिल तंग न हो उस ने तेरे लिए मल्बूस नया रक्खा है दुश्मन-ए-हब्स है वो क़ासिद-ए-ख़ुशबू है वो इसी निस्बत से तो नाम उस का हवा रक्खा है मेरा इरफ़ान-ए-सियाही न मुकम्मल हो जाए एक रौज़न मिरे ज़िंदाँ में खुला रक्खा है वही तूफ़ाँ का स्वागत किया करता है 'क़मर' जिस ने कश्ती को किनारे से जुदा रक्खा है