क़रीब हूँ प तिरी दस्तरस से बाहर हूँ मैं दुश्मनों के महल्ले में दोस्त का घर हूँ लताफ़तों की क़यामत कोई मज़ाक़ नहीं मैं आँधियों में हूँ और ख़ुशबुओं का रहबर हूँ नसीब तो किसी बाज़ार में नहीं बिकते मुझे सँभाल के रख मैं तिरा मुक़द्दर हूँ तू अपने जिस्म की कितनी रगों को काटेगा मैं तेरे दिल नहीं तेरे लहू के अंदर हूँ बड़ा अज़ाब है अपने से आश्ना होना मिरा ये दुख है कि मैं आगही की ज़द पर हूँ तू मुझ को देख तो सकता है छू नहीं सकता ये जान ले कि मैं शीशे के घर के अंदर हूँ 'क़मर' हुआ हूँ मैं ख़ुशबू के बत्न से पैदा यही सबब है कि दोश-ए-हवा के ऊपर हूँ