क़िस्सा-ए-माज़ी सिपुर्द-ए-ताक़-ए-निस्याँ कर दिया ज़िंदगी मुश्किल थी इस मुश्किल को आसाँ कर दिया मुंतशिर है किस क़दर शीराज़ा-ए-नज़्म-ए-हयात अपनी बर्बादी का तू ने ख़ुद ही सामाँ कर दिया अब शिकायत है तुझे बे-मेहरी-ए-तक़दीर की इन निगाहों ने ही वीराना गुलिस्ताँ कर दिया अब भी बाक़ी हैं तिरी अज़्मत के कुछ ज़िंदा निशाँ तेरी सतवत ने तो इक आलम को लर्ज़ां कर दिया मुज़्तरिब हूँ अज़्मत-ए-रफ़्ता को पाने के लिए जिस ने आईन-ए-जहाँ-दारी को हैराँ कर दिया चाहता हूँ मैं हो तज्दीद-ए-मज़ाक़-ए-ज़िंदगी मैं ने फ़ितरत के उसूलों को नुमायाँ कर दिया रहबर-ए-इंसानियत मेरी नवा मेरी सदा आज इक जिन्स-ए-गिराँ-माया को अर्ज़ां कर दिया