इलाही ख़ैर बढ़ जाए न शोरीदा-सरी अपनी दिखाता है मिरा जोश-ए-जुनूँ दीवानगी अपनी ये मेरी इज़्तिराब-ए-शौक़ की अफ़ज़ूनियाँ तौबा बढ़ी जाती है पैहम जाने क्यों आशुफ़्तगी अपनी कभी तड़पा कभी रोया कभी दिल थाम कर उट्ठा किसी कल बैठने देती नहीं है बेकली अपनी फ़िराक़-ए-यार में दो चार आँसू गर बहा देते बुझा लेते हम इन अश्कों से शायद तिश्नगी अपनी बहार-ए-हुस्न के जल्वे मिरी आँखों में रहते हैं चमन-अंदोज़ रहती है निगाह-ए-आशिक़ी अपनी किसी के नर्गिसी साग़र का नश्शा छा गया दिल पर ख़िरद के होश गुम हैं बढ़ गई है बे-ख़ुदी अपनी शबाब-ए-हुस्न की शोख़ी जुनूँ दर-पर्दा लाई है तो आख़िर-कार बढ़ जाए न क्यों वारफ़्तगी अपनी न जाने किस की बर्क़-ए-हुस्न ने बर्बाद कर डाला कि बढ़ती जा रही है दम-ब-दम दीवानगी अपनी मिरा चर्चा ज़माने के अदीबों में 'फ़ज़ा' होगा किसी दिन रंग लाएगी जहाँ में शायरी अपनी