वाइ'ज़ मिलेगी ख़ुल्द में कब इस क़दर शराब पानी के बदले पीते हैं ऐ बे-ख़बर शराब आमद में उस की मस्त हुए कुछ ख़बर नहीं साक़ी है कौन जाम कहाँ और किधर शराब उस क़ुल्ज़ुम-ए-गुनाह में डूबा हुआ हूँ मैं जिस में है एक मौजा-ए-दामान-ए-तर शराब मस्ती में उन को लग गई लौ और ग़ैर की देनी शब-ए-विसाल न थी इस क़दर शराब इक़रार-ए-वस्ल और वो मस्त-ए-ग़ुरूर-ए-नाज़ आया है पी के तू कहीं ऐ नामा-बर शराब मैं एक बार आँख चुरा कर जो पी गया लाया न ज़ख़्म धोने को फिर चारागर शराब करना था मुझ को हीला शिकस्त-ए-ख़ुमार का देनी थी ख़ूब क़ब्ल-ए-तुलू-ए-सहर शराब रुख़्सत का होश उन को न रहता शब-ए-विसाल कुछ बोलते तो ये कि धरी है किधर शराब 'सालिक' मिले जो बज़्म में उस की तो लुत्फ़ है वर्ना पिया ही करते हैं हम अपने घर शराब