क़ुर्बानी-ए-इंसाँ का नहीं शौक़ गर उस को फिर ईद के दिन क्यों मुझे ज़िंदाँ से निकाला अहबाब के काँधे से गिरा जाता था जिस दम ताबूत मिरा गोर-ए-ग़रीबाँ से निकाला तक़दीर ने साहिल पे किए सैकड़ों फेरे तख़्ता न हमारा कभी तूफ़ाँ से निकाला शाना दिल-ए-सद-चाक के नक़्शा से बनाया आईना मिरे दीदा-ए-हैराँ से निकाला वो तिफ़्ल-ए-शरीर और से कब चूके है जिस ने उस्ताद को दो दिन में दबिस्ताँ से निकाला लैला भी मगर पर्दा-ए-महमिल की थी दुश्मन नाक़ा को रगड़ कर जो मुग़ीलाँ से निकाला ज़िद मुझ से थी मजनूँ की हिकायत का फिर ऐ जान क्यों तुम ने वरक़ अपने गुलिस्ताँ से निकाला अब तक मिरी आहों में है सुम्बुल की सी ख़ुशबू इक दिन जो धुआँ यार के क़ुलियाँ से निकाला