रात अपनी थी ख़्वाब अपना था साथ मेरे निसाब अपना था पास अपने थी बादशाही भी हर जगह माहताब अपना था रौशनी भी ख़िलाफ़ है अब तो हाँ कभी माहताब अपना था सारे मंज़र ही हो गए ग़ाएब आँख अपनी सराब अपना था सारी ख़ुशियाँ थीं आप की जानिब ग़म मगर बे-हिसाब अपना था बन के आँखों में अक्स जागा है जो कभी हम-रिकाब अपना था