ज़मीं पर हश्र कुछ ऐसा बपा है हर इंसाँ अपने अंदर छुप गया है फ़ज़ाओं में हर इक सू रौशनी है न जाने आज किस का घर जला है उसे कोशिश में पढ़ने की लगा हूँ वरक़ जो मेरे दिल ने लिख दिया है नज़र आती नहीं है शक्ल कोई बस इक साया ख़ला में चल रहा है दिए हैं अपने-पन ने ज़ख़्म इतने कोई हँस कर मिले दिल काँपता है वही इक याद जो दिल में बसी थी वही तो अब मिरे दिल की दवा है ख़लिश तड़पा रही थी कब से 'आदिल' निशान-ए-ज़ख़्म अब जा कर मिला है