रात गए यूँ दिल को जाने सर्द हवाएँ आती हैं इक दरवेश की क़ब्र पे जैसे रक़्क़ासाएँ आती हैं सादा-लौही की निबटेगी इस रंगीन ज़माने से दो आँखों का पीछा करने लाख अदाएँ आती हैं ढूँढ रही है मेरे तन में शायद मेरी रूह मुझे अपने सन्नाटों से कुछ मानूस सदाएँ आती हैं मेरा इक इक लम्हा कर्ब लिए फिरता है सदियों का इक दुनिया के रस्ते में कितनी दुनियाएँ आती हैं पहले सर से ऊँची लहरों से भी हम लड़ लेते थे अब तो इन सूखे होंटों पर सिर्फ़ दुआएँ आती हैं दश्त-नवर्दी के दौरान 'मुज़फ़्फ़र' सर पर धूप रही जब से कश्ती में बैठे हैं रोज़ घटाएँ आती हैं