रात गुज़री कि शब-ए-वस्ल का पैग़ाम मिला सो गए ख़्वाब की बाँहों में जो आराम मिला ढूँडते रहिए शब-ओ-रोज़ उमीदों के क़दम कूचा-ए-ज़ीस्त में ले दे के यही काम मिला ख़ूबी-ए-बख़्त कि जब भूल चुका था सब कुछ बेवफ़ाई का लब-ए-ग़ैर से इल्ज़ाम मिला पा-पियादा था मगर राह में वो धूम मची झुक के ताज़ीम से शहज़ादा-ए-अय्याम मिला हम ने बेची नहीं जिस रोज़ मता-ए-ग़ैरत इक पियाला भी न मय का हमें उस शाम मिला मुख़्तसर ये है कि जब वक़्त-ए-विदा-ए-गुल था ख़्वाब में आ के गले मुझ से वो गुलफ़ाम मिला हम जुनूँ है कि नहीं राह में पूछेंगे 'नईम' दश्त-ए-ग़ुर्बत में ये क्या कम है कि हमनाम मिला