क़सीदा तुझ से ग़ज़ल तुझ से मर्सिया तुझ से हर एक हर्फ़ हुआ साहब-ए-नवा तुझ से ज़बाँ-कुशाई-ए-ग़म से खुली किताब-ए-ख़याल वरक़ वरक़ पे खुला हुस्न-ए-मुद्दआ' तुझ से ज़मीं में फूट पड़ा चश्मा-ए-जुनूँ-सामाँ गुलों में सर्द पड़ी आतिश-क़बा तुझ से कहाँ से ज़ूद-फ़रामोशियों की ख़ू सीखी जो देखिए तो न थी बर्क़-आश्ना तुझ से पहुँच तो जाता सर-ए-ख़ेमा-ए-वफ़ा-आबाद मगर है सुस्त क़दम उम्र-ए-तेज़-पा तुझ से किए थे काम जो दिल के सिपुर्द उन को भी दिमाग़-ए-दहर से बढ़ कर है अब गिला तुझ से हुआ जो कूचा-ए-तन्क़ीद में 'हसन' रुस्वा मिलाया ग़ैब ने 'ग़ालिब' का सिलसिला तुझ से